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________________ पंचम पिण्डेषणा अध्ययन परी- विभाम करत चितं स एह, हित-हेतु लाभ निज हेतु तेह । जो करइ छपा मुनिराज कोइ, जल-असन गहें उखरै मोह ।। अर्ष-विश्राम करता हुआ मुक्ति लाभ का इच्छुक मुनि इस हितकर अर्थ का चितन करे-यदि आचार्य और साधु मुझ पर अनुग्रह करें तो मैं निहाल हो जाऊं और समझू कि उन्होंने मुझे भवसागर से तार दिया। पारी-तब साधुन को अति प्रीति लाय, क्रमसों सु निमन्त्रन कर ताय । उनमें तें इच्छा करह कोय, तिन संग कर भोजनहिं सोय ॥ जो कर न इच्छा और कोय, तो कर अकेलो भोज सोय । संजति प्रकास जुत पात्र-माय, जतननि जीमे नहि महि गिराय ॥ अर्थ-वह प्रेमपूर्वक साधुओं को यथाक्रम से निमंत्रण दे। उन निमंत्रित साधुओं में से यदि कोई साधु भोजन करना चाहे तो उनके साथ भोजन करे । यदि कोई साधु भोजन न करना चाहे तो खुले पात्र में यतनापूर्वक नीचे नहीं डालता हुमा अकेला ही भोजन करे। (९७) परी-तीखो कड़वो वा जुत कसाय, बाटो मीठो लूनो जु आय । जौरन-हित कोनो जो अहार, मान्यो आगम आज्ञानुसार ।। संयति सो भोगे शान्ति मान, मान मधु अथवा घृत समान । जो मिला मुझे निज विधि-समान, उसमें ही है मम बहु कल्यान ।। अर्थ-गृहस्थ के लिए बना हुआ तिक्त, कटुक, कषाय (कसला) खट्टा, मीठा या नमकीन जो भी आहार उपलब्ध हो, उसे संयमी मुनि मधु-घृत के समान समझकर खावे। (९८-९९) कवित्तविधि सॉ मिल्यो है आन, अरस विरस जान, सूचित-असूचित सरस सूखो जसो है, पोरन को चूरन, उरबह के वालिया, सरस है थोरो तथा नीरस धनेरो है। साहू की न निदा कर, विन ही बसीले चर, विना कोक होलेके महार आन्यो ऐसो है. प्रामुक महार माहि वामें कोक बोस नाही, त्यागी मुनिराज ताहि मोगें जान तेसो है।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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