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________________ पंचम पिण्डेषणा अध्ययन (६५-६६) सर्वया- ईट सिला लकराजु थपे कछु, पावस में मग चालन चाही, वे पिर नाहिं उगामग डोलत, तो तिहि पंयतें संत न जाही। देख्यो असंजम ऐसन तें, अनह गहरे मग पोले तनाही, जो परवीन सब इदरीन को, कोन है लीन समाधि के मांही। अर्थ-यदि कमी काठ, शिला या ईंट के टुकड़े संक्रमण (जल या कीचड़ पार करने) के लिए रखे हुए हों और वे चलाचल हों तो सर्वेन्द्रियों की सावधानी वाला साधु उन पर होकर न जावे । इसी प्रकार वह प्रकाश-रहित और पोली भूमि से न जावे, भगवान् ने वहां पर असंयम (प्राणि-घात और आत्म-विराधन) देखा है । (६७-६८-६९) दोहा-पीढ पाटिया पलंग वा, नोसेनी हि उठाइ । मनि-हित ऊंचे घरि चढ़, देनहारि जो जाइ । दुखसों चढ़ती गिर पर, कर पग डार तोर । भूमि-काय-जीवनि हने, जो ठहरै तिहि ठोर ।। ऐसो मोटो दोस लखि, साधु महारिसि जेय । तातें पंकति-रचनि करि, लाई भोख न लेय ॥ अर्थ ---श्रमण के लिए दाता निसनी, फलक या पीठ को ऊंचा कर मंचान स्तम्भ और प्रासाद पर चढ़ भक्त-पान लावे तो साधु उसे ग्रहण न करे। क्योंकि सैनी आदि से चढ़ती हुई स्त्री गिर सकती है और हाथ-पैर टूट सकते हैं । उसके गरने से नीचे दबकर पृथ्वी की तथा पृथ्वी के आश्रित अन्य जीवों की विराधना हो सकती है । अतः ऐसे महादोषों को जानकर महर्षि संयमी मालापहृत (कारी मंजिल से सीढ़ी आदि चढ़कर लाई हुई) वस्तु की भिक्षा नहीं लेते हैं । (७०) दोहा-कंद मूल फल अपक जे, छेदित पत्ता साग । ___ आवा लोको (घीया) साक ए, सचित जानि मुनि त्याग । अर्थ-अपक्व कन्द, मूल, फल छिला हुआ, पत्ती का शाक, तुम्बाक (लौकाघीया) और अदरक का मुनि परित्याग करे ।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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