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________________ U श्रुनवेदनाश्रक्तिप्रश्शुन्नविक्रियादै॥सूत्रोपरस्परोदीरितद्दुःखाः॥४॥ नारकी जीवप रस्पपरदेखने मात्र ही कोपाप्रग्निकरिज्वलतिनण्नानाप का रकेदुःखनि कूंपरस्परप्रगट करैहै॥ सूत्रं । संक्तिष्टासुरोदीरितदुःखांचं शाकं चतुर्थ्याः ॥५॥ तीसरीष्टधीपर्यंत संक्केशपरिणामके धारक प्र सुरकुमारजातके देवनार निकेंद्रः खनिकुंउपनावेदे ॥ तिष्धक चिसप्तदशाविंशतित्रयस्त्रिंशत्मा सप्तदशः नगरोसत्वापरास्थितिः॥ ६॥ तिनिनरकनिकी सप्पृष्टथी निर्विषैनारको जीव नि काउत्कृष्ट श्रायु एक सागरती न सागर सप्तसागर दश सागर सत्तरेसागरवाईस साग तेतीस सागरप्रमाणअनुक्रमतैहै॥ सूत्र| जेवूद्दीपलचणदौदयः श्रननामानो छीपसमुद्राः|||| जंबूद्दी पादिकापञ्चरलवणोदादिसमुइसुन नामकेधार कसंख्या तेही पसमुदे ॥ सूत्रं द्विद्दिर्विकं नापूर्वपूर्वपरिक्षेपणोवलया कृतयः||८||६ीप समुद्दिगुणद्दिगुण विक्रेन के धारक है- अरदीप को समुद्रवे
SR No.010804
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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