SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 873
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचा० ॥१०८६ ॥ जे कोइ संसारी जीव के साधु देखीता मनोहर विषयोथी मुझाइने विलयाय अथवा तेवा सुंदर विषयोना वियोगमां घेलो थाय तेवा पुरुषने चित्तामां अपूर्व शान्ति माप्त करवा आ उपदेश छे के तुं तारा हृदयमां आ प्रमाणे विचार के मारो आत्मा निरंतर रहेनारा जन्म मरणथी मुक्न ज्ञान दर्शनना लक्षणबाळो छे, बाकी जे कंद शरीर विगेरे चलायमान देखाय छे ते कर्मना संयोगथी मने मळेलुं छे, हुं तेनाथी जुदो हुं मारुं स्वरूप चेतन छे अने शरीर विगेरे जड छे. (आ निश्चय नयनी भावना जाणवी . ) आ भावनाओ रुपिनुं अंग छे अने चारित्रने आश्रयी (टेको आपनार ) छे. ( हवे तपनी भाव कहे छे. ) किह मे हचिज्जवंशो दिवसो ? किं वा पहू तवं काउं ? । को इह दब्वे जोगो खित्ते काले समयभावे ? || ३४० ॥ साधुए निर्मळ चारित्र पाळवा हंमेशां चितवनकर के विगइओ विगेरे त्यागीने मारो दिवस हंमेशां क्यारे सफळ थशे ? तथा हुँ क्यो तप करवाने शक्तिवान छु ? तथा क्या द्रव्य विगेरेमां मारो निर्वाह थशे ? आवुं चिंतत्र, तेमां बने त्यांसुधी साधु द्रव्यमां उत्सर्गथी वाल चणा विगेरे वापरवा, क्षेत्रमां ज्यां घी दुध मळे के लुखा रोटला मळे तो पण संतोषथी विहार करवो, काळमां ठंडी मां के उनाळामां विहार करवो तथा भवमां हुं सानो होवाथी आ तप करवाने शक्तिवान हुं आवी रीते द्रव्य क्षेत्र काळ भावथी विचारी यथाशक्ति उपकरण विगेरे जोइतांज राखीने परिसहो सहेवा तप करवो. तत्त्वार्थमूत्रना छठा अध्यायमा २३ मी सूत्रमां कंछे के यथाशक्ति त्याग अने तप करवो. उच्छाहपाल इति (एव) तवे संजमे य संत्रयणे । वेरोऽणिच्चाई होइ चरित्ते इहें पगयं ॥ ३४९ ॥ सूत्रमू ॥१०८६ ॥
SR No.010803
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrabahu, Shilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages890
LanguagePrakrit, Sanskrit, Gujarati
ClassificationManuscript, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy