SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 871
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचा० ॥१०८४ ॥ - प्रथम कर्मबंधननुं स्वरूप जाणयुं अने तेमां विरक्त थधुं तेथी कर्मक्षय थतां मोक्ष प्राप्ति थाय, आवी क्रिया बौद्ध विगेरे दर्शनमां न होवाथी मोक्षनी क्रियासिद्धि पण अशक्य छे. . आ प्रमाणे प्रथम ज्ञान भणवाथी अने ते प्रमाणे वर्त्तवाथी ज्ञान भावना थाय छे तथा आठ प्रकारना कर्मना पुद्गलोथी जीव दरेक प्रदेशे बंधा लो छे, तथा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कपाय अने योगो कर्म बंधनना हेतुओं छे अने आठ प्रकारना कर्मवणानं रुप पूर्वे का प्रमाणे बंधन छे अने ते उदय आवतां एनुं फळ चार गतिवाळा संसारमां भ्रमण करीने सुख दुःखने भोगववानुं छे. आ वधुं जिनवचमांज कहेलुं छे. ''1 अथवा दुनियामां जे कं सुभाषित हितकारक वचन छे ते अहीं प्रवचनमां कहेलं छे ते ज्ञानभावना छे. वळा आ जिनवचनमां आ संसारनुं जे विचित्र स्वरूप छे ते विस्तारथी कां छे. " " तथा हुं निर्मळ भावे भणीश तो मारुं ज्ञान वधारे निर्मळ धशे एवी ज्ञानभावना भाववी अर्थात् रोज़ रोज नवें नंबुं ज्ञान संपादन कर, आदि शब्दथी एकाग्रचित्त विगेरे गुणो आ ज्ञानथी थाय छे. वळी अज्ञानी जे कर्म करोडी वरसे खपावे छे तेने ज्ञानी एक श्वासोश्वासमां खपावे छे. आवां कारणोथी ज्ञान भणवं, एटले ज्ञाननो संग्रह थाय. कर्मनी निर्जरा थाय भूली न जवाय अने स्वाध्याय करतां चित्तमां आनंद रहे आ कारणोथी ज्ञानभावना बढे दरेक साधुने गुरुकुळवास थाय छे ते बतावनारी गाथा कहे छे. ' " णाणस्स होइ भागी थिरयर ओ दंसणे चरिते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ।। १ ।। सूत्रमू ||१०८४ ॥
SR No.010803
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrabahu, Shilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages890
LanguagePrakrit, Sanskrit, Gujarati
ClassificationManuscript, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy