________________
आचा०
सुत्रम्
LSCREER-R
॥३५८॥
॥३५॥
आसं च छन्दं च विगिंच धीरे ? तुमं चेव तं सल्लमाहल, जेण सिया तेण नोसिया, इणमेव नाव बुझंति जे जणा मोहपाउडा, थीभि लोए पवहिए, ते भो! वयंति एयाई आययणाई, से दुःक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरगतिरिक्खाए, सययं मुढे धम्मं नाभि जाणइ, उआहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाएणं सं
तिमरणं संपेहाए भेउरधम्म संपेहाए, नालं पास अलं ते एएहिं (सू० ८४) गुरु उत्तम शिष्यने कहे छे के
तुं भोगोनी आशाओने तथा भोगोना अभिलापोने छोड, धी. (बुद्धि) तेना वढे राजे. (शोभे) ते धीर पुरुष जाणवो. तेवा उत्तम शिष्यने गुरुनो उपदेश लागे छे. तेथी कहे छे के हे शिष्य ! भोगमां दुःखज छे. अने तेमां सुखनी प्राप्ति नथी. (मगतष्णामां जळ नथी. पण जळनो खोटो आभास छे तेम भोगोमां सुख नथी.) आ प्रमाणे शिष्यने गुरु समजावे छे. अथवा पोते ५ आत्माने समजावे छे. के हे आत्मा तुं भोगनी आशा विगेरे शल्यने छोडीने परमशुभ संयम तेनु सेवन कर. पण भोगोने विसरी जा कारणके जे जे पैसा विगेरेना उपायथी भोग उपभोगनी आशा छे तेना वढे मळतो नथी. एटले जेना वढे भोगो मळे तेज धन विगेरेथी। कर्मनी परिणति विचित्र होवाथी धार्या करतां उलटुं थाय छे.
AA