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ताछन्द जो अशुभ काज विकल्प हो, संरम्भ मनयुत कुटिलता।
कर कर अनादित रंक जिय, बहु भांति पाप उपावता ॥ सो त्याग सकल विभाव यह तुम, सिद्ध ब्रह्मस्वरूप हो। हम पूजि है नित भक्ति युत, तुम भक्ति वत्सलरूप हो॥४१॥
___ॐ ह्री प्रकृतमनो मायासरम्भब्रह्मस्वरूपाय नम अयं । दोहा-मायावी मनतें नहीं, कबहुँ प्रारम्भ कराय।
सिद्ध चेतना गुरण सहित, नमू सदा मन लाय ॥४२॥ ____ॐ ह्री अकारितमनोमायासरम्भचेतनाय नम अध्यं । मायावी मनतें कभी, रंभानन्द न होय । सिद्ध अनन्य सुभाव युत, नमसदा मद खोय ॥४३॥ ॐ ह्री नानुमोदितमनोमायासरम्भ अनन्यस्वभावाय नमः अध्यं ।
पद्धडी छन्द । मायावी मनतें समारंभ, नहिं करत सदा हो अचल खंभ । तुम स्वानुभूति रमणीय संग, नित नमन करो धरि मन उमंग ॥४४॥ई
ॐ ह्री अकृतमनोमाया समारम्भस्वानुभूतिरताय नमः अध्यं ।
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