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________________ अवग्गाहण अगुरुल घुमवावाहं मोहाधकारविनाशनाय दीप० ॥६॥ नीलंजसा करी नभमें ज्यो, ऋषभ भक्तिकर नृत्य कियो। ____ सो तुम सन्मुख धूप उड़ावत, तिस छविको नहीं भाव लियो। लोकाधीश शीश चूड़ामरिण, सिद्धचक्र उरधारा हो। चौसठ दुगुण सुगुरण सुवरन सुमिरत ही भवपारा हो। ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुणसयुक्ताय श्री समत्तणाणदमण वो हमत्तहेव अवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाह अष्टकर्मदहनाय धूप० ।।७।। । सेव रंगीले अनार रसीले, केलाकी लै डाल फली। डाली हू नृपमाली हूँ, नातर प्रासुकताका रीति भली लोकाधीश, ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुणसयुक्ताय श्री समत्तणाणादसणवीर्य सुहमत्तहेव । अवग्गाहण अगुरुल घुमव्वावाह मोक्षफलप्राप्तये फलम् || एकसे एक अधिक सोहत वसु, जाति अर्घ करि चरण नमू। आनंद प्रारति भारत तजिकै, परमारथ हित कुमति ब लोका० ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्टिने १२८ गुणसयुक्ताय श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव प्रवग्गाहण अगुरुलधुमव्वावाह अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्य० ॥६॥ winnirunawwani ५७
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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