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________________ 2 .0 घत्तानन्द छन्द। जय जय सुखसागर, सुजस उजागर, गुरणगरण आगर, तारण हो। सद्ध जय संत उधारण, विपति विडारण, सुख विस्तारण, कारण हो । वि० तुम गरण गान परम फलदान, सो मंत्र प्रमान विधान करूं ॥ ५४ जहरी कर्मनि वैरी की कहरी, असहरी भवकी व्याधि हरू॥ ___ इत्याशीर्वाद । इति चतुर्थपूजा सम्पूर्ण। अथ पंचम पूजा छप्पय छन्द-ऊरध अधो सरेफ विद हंकार विराज, अकारादि स्वर लिप्त करिणका अन्त सु छाजै । वर्गनि पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधिधर; अग्रभागमें मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अन्त ही बेढयो परम, सुर ध्यावत अरि नाशको। हलै केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१॥ पूजा ॐ ह्री णमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिन् अष्टविंशत्यधिकशत १२८ गुण सहित ५४ - माननरावतर सवौषट पाह्वानन, प्रत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठः स्थापन । पत्र मम पचम
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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