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________________ सिद्ध वि. पुनि अंत ही बेढयो परम, सुर ध्यावत अरि नागको। ह्व केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१॥ ॐ ह्री शमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिन् बत्तीस गुण सहित विराजमान अश्रावतरा२५१ वतर सवौषट् प्राह्वानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठ स्थापन । अत्र मम सन्निहितो भव भव । । वषट् सन्निधिकरणं। दोहा-सूक्ष्मादि गुण सहित है, कर्म रहित नीरोग । सकल सिद्ध सो थापहूं, मिटै उपद्रव योग । इति यत्रस्थापन। अथाष्टक प्रभु पूजोरे भाई, सिद्धचक्र बत्तीसगुण, प्रभु पूजोरे भाई । भवत्रासित प्राकुलित रहै, भवि कठिन मिटन दुखताई॥ विमल चरण तुम सलिल धार दे, पायो सहज उपाई ॥प्रभु पूजोरे० पूजा ह्री नमोसिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीर्य मुहमत्तहेव अवग्गागा प्रगलघमव्वावाहं बत्तीसगुणमयुक्ताय जन्मजरारोगविनाशनाय जल ॥१॥ प्रथम
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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