SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद नव केवललब्धि विराजमान, दैदीप्यमान सोहे सुभान ॥७॥ तिस मोह दुष्ट आज्ञा एकांत, थी कुमति स्वरूप अनेक भांति । वि० जिनवारणी करि ताको विहंड, करि स्याद्वाद प्राज्ञा प्रचंड ॥६॥ बरतायो जग में सुमति रूप, भविजन पायो प्रानन्द अनूप । थे मोह नृपति दुखकरण शेष, चारों अघातिया विधि विशेष ॥६॥ है नृपति सनातन रीति एह, अरि विमुख न राखे नाम तेह । यो तिन नाशन उद्यम सुठानि, प्रारंभ्यो परम शुकल सु ध्यान ।१०। तिस बलकरि तिनकी थिति विनाश, पायो निर्भय सुखनिधि निवास । यह अक्षय जोति लई अबाधि. पुनि अंश न व्यापो शत्रु बाध ॥११॥ शास्वत स्वाश्रित सुखश्रेय स्वामि, है शांति संत तुम कर प्रणाम । अंतिम पुरुषारथ फल विशाल. तुम विलसौ सुखसौ अमित काल ।१२। ॐ ह्री सम्मत्तणाणादि-अष्टगुणसयुक्तसिद्ध म्यो महायं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ घत्ता-परसमय विदूरित पूरित निजसुख समयसार चेतनरूपा। नानाप्रकार विकार हुतै सब टार लसै सब गुरणभूषा ॥ प्रथम
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy