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________________ सिद्ध व रूपातीत मन इन्द्रिय नाहीं, मनपर्यय हू जानत नाहीं। अलख अनूप अमित अधिकारी, नमू सिद्ध सूक्षम गुरणधारी ॥५॥ ____ॐ ह्री सूक्ष्मत्वाय नम अयं । ५॥ एक क्षेत्र अवगाह स्वरूपा, भिन्न भिन्न राजै चिद्रूपा । निज परघात विभाग विडारा, नमूसुहित अवगाह अपारा ॥६॥ ॐ ह्री अवगाहनत्वाय नम अध्यं ।। ६॥ परकृत ऊँच नीच पद नाहीं, रमत निरंतर निज पद माहीं। उत्तम अगुरुलघु गुरण भोगी, सिद्धचक्र ध्यावै नित योगी ॥७॥ ___ॐ ह्री अगुलघुत्वात्मकजिनाय नम अर्घ्यं ॥ ७॥ नित्य निरामय भव भय भंजन, अचल निरंतर शुद्ध निरंजन । अव्याबाध सोई गुण जानो, सिद्धचक्र पूजन मन मानो ॥८॥ ___ॐ ह्री अव्याबाधत्वाय नमः अध्यं ॥८॥ ___ यहां १०८ बार 'प्रो ह्री अहं असिग्राउसा नमः' मत्र का जप करे। अथ जयमाला दोहा--जग भारत भारत महा, गारत करि जय पाय । विजय प्रारती तिन कहूँ, पुरुषारथ गुरणगाय ॥१॥ प्रथम पूजा
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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