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________________ निज पौरुष करि सूर्य सम, हरो तिमिर मिथ्यात । तुम पुरुषारथ सफल है, तीन लोक विख्यात ॥ॐ ह्रीअहमिथ्यातिमिरविनाशकायनम मित वस्तु परीक्षा तुम विना, और झूठ कर खेद । वि० अंध कूप मे आप सर, डारत है निरभेद ॥ ही मर्ह मीमांस काय नम अध्यं ॥८७४।। होनहार या हो लई, या पइये इस काल । अस्तिरूप सब वस्तु है,तुम जानो यह हाल ह्रींअहं अस्तिसर्वज्ञाय नम अध्यं ।८७५॥ जिनवारणी जिन सरस्वती, तुम गुणसों परिपूर।। पूज्य योग तुमको कहैं, करै मोहमद चूर॥ही महं श्रुतपूज्याय नमःमध्यं ।।८७६।। स्वयं स्वरूप आनंद हो, निज पद रमन सुभाव। सदा विकासित हो रहै, बंदू सहज सुभाव ॥ ह्रींमहं सदोत्सवाय नम.प्रध्यं । ८७७ मन इन्द्री जानत नहीं, जाको शुद्ध स्वरूप। वचनातीत स्वगुरगसहित,अमल अकाय अरूपोह्रींअहं परोक्षज्ञानागम्याय नमः अष्टम जो श्रुतज्ञान कला धरै, तिनको हो तुम इष्ट । पूजा तमको नित प्रति ध्यावते,नाशेसकल अनिष्ट ॥ोह्रीं महं इष्टपाठकाय नमःमध्यं । १८० mmunwawarananirnnnnnnnnnnnwranimunirnarsure
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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