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________________ सिद्ध वि० ३६४ संतति पक्ष जुदी नहीं, नहीं श्रादि नहिं अन्त । सदा काल बिन काल तुम, राजत हो जयवंत ॥ ही ग्रह अनादिनिधनाय नम प्र तीन लोक आराध्य हो, महा यज्ञको ठाम । तुमको पूजत पाइये, महा मोक्षसुख धाम ॥ॐ ह्री ग्रह हराय नम प्रध्य ॥७६०।। महा सुभट गुरगुरास हो, सेवत हैं तिहुँ लोक । शरणागत प्रतिपालकर, चरणांबुज दूं धोक ॥ह्री घर्ह महासेनायनम.श्रयं ॥७६१ गणधरादि सेवें चरण, महा गणपती नाम | पार करो भवसिंधुतें, मंगलकर सुखधाम ॥ही श्रर्हं महागणपतिजिनाय नम.प्रध्य चार संघके नाथ हो, तुम प्रज्ञा शिर धार । धर्म मार्ग प्रवर्त्त कर, बंदू पाप निवार ॥ॐ ह्री ग्रहं गणनाथाय नम म्रध्य ।।७६३।। ل मोह सर्पके दमनको, गरुड समान कहाय । सबके आदरकार हो, तुम गणपति सुखदाय ॥ ॐ ह्रीममहाविनायकाय नम ग्रध्य । जे मोही अल्पज्ञ है, तिनसों हो प्रतिकूल । धर्माधर्म विरोध कर, धरूं शीश पग धूल ॥ ॐ ह्रींग्रह विशेषविनाशकजिनाय नम प्र अष्टम पूजा ३६४
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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