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सिद्ध०
वि० ३३२
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संशयादि दृष्टी नहीं, सम्यक ज्ञान मझार ।
सब पदार्थ प्रत्यक्ष लख, महा तुष्ट सुखकार ॥ ॐ ह्रीग्रह निर्भ्रातायनम अयं । ५३५ शांतिरूप निज शांति गुरण, सो तुमही मे पाय ।
निज मन शांति सुभावधर, पूजत हू युगपाय ॥ ॐ ह्री ग्रह प्रशाताय नमः प्रर्घ्यं । ५३६ मुनि श्रावक द्वै धर्मके, तुम अधिपति शिवनाथ ।
भविजनको आनंद करि, तुम्हें नवाऊं माथे ॥ह्रोग्रहं धर्माध्यक्षायनम ग्रर्घ्यं । ५३७ दया नीति बरताइयो, सुखी किये जगजीव । कल्पित रागग्रसत नहीं, जानत मार्ग सदीव ॥ ॐ ह्रीं श्रीं दयाध्वजायनमःश्रध्यं । ५३८ । केवल ब्रह्म स्वरूप हो, अन्तर बाह्य प्रदेह |
ज्ञान ज्योतिधन नमत हूँ मनवचतनधरि नेह ॥ ॐ ह्रीग्रहं ब्रह्मयोनये नमःश्रर्घ्यं।५४०। स्वयं बुद्ध श्रविरुद्ध हो, स्वयं ज्ञान परकाश ।
निज परभाव दिखात हो, दीपकसमप्रतिभास ॥ ॐ ह्रीं प्रहस्वयबुद्धाय नमः मध्ये ५४० रागादिक मल नाशियो, महापवित्र सुखाय । शुद्ध स्वभाव धरै करै, सुरनर युति न श्रधाय ॥ॐ ह्री पूतात्मने नम म्रध्यं । ५४१
अष्टम
पूजा
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