SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२४ तीन लोक शिरमौर तुम, सब पूजत हरषाय । मिद्ध० परमेश्वर हो जगतके, बंदत हूँ तिन पाय ॥ॐ ह्रीनहत्रिजगत्परमेश्वरायनमःप्रय ४७६ वि० लोकशिखरपर अचल नित, राजत है तिहुँ काल । सर्वोत्तम आसन लियो, लोक शिरोमरिणभाल ॥ॐ ह्रीमहविश्वासिनेनम अध्य|४८० विश्वभूति प्राणीनके, ईश्वर है भगवान । सबके शिरपर पग धरै, सर्व प्रान तिन मान ॥ॐ ह्रीमह विश्वभूतेशायनम मयं ४८१ मोक्ष संपदा होत ही, नित अक्षय ऐश्वर्य । कौन मूढ़ कौड़ी लहै, सर्वोत्तम धनवर्य ॥४ह्रीमहं विभवाय नमःअयं ।।४८३।। त्रिभुवन ईश्वर हो तुम्हीं, और जीव है रंक । तुम तज चाहै औरको, ऐसो को बुध बंक ॥ ह्रीग्रह त्रिभुवनेश्वराय नमःप्रय । उत्तरोत्तर तिहुँ लोकम, दुर्लभ लब्धि कराय। तुम पद दुर्लभ कठिन है, महा भाग सो पाय ॥ॐ ह्रीअर्हत्रिजगदुर्लभाय नम अध्यं .बढवारी परणामसो, पूर्ण अभ्युदय पाय । गय ॥ॐ ह्रीं मह प्रभ्युदयाय नम प्रध्यं ॥४८॥ अष्टम ३२४
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy