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________________ इछायक दर्शन जोति में, निरावरण परकास । सिद्धार सो अनंतहग तुम धरौ, नमै चरण नित दास॥ह्रीमहं अनतदर्शयेनम.अध्यं १५७ वि० जाकी शक्ति अपार है, हेत अहेत प्रसिद्ध । २७८४ गरगधरादि जानत नहीं मै बर्दू नितसिद्ध ॥ ॐ ह्री ग्रह अनतशक्तयेनम.मयं ।।१५८। चेतन शक्ति अनंत है, निरावरण जो होय। 5 सोतम पायी सहज ही, कर्म पुंजको खोय ॥ॐ ह्रौं प्रहं अनतचिदेशायनम अध्य।१५६ जो सुख है निज आश्रये, सो सुख परमें नाहिं। निजानन्द रस लीन है, मै बंदूंहूँ ताहि ॥ ॐ ह्री अहं अनतमुदे नम प्रध्यं ॥१६०।। जाकै कर्म लिपै न फिर, दिपै सदा निरधार । सदा प्रकाशजु सहित है, बंदूंयोग सम्हार ॥ ह्रीमहं सदाप्रकाशाय नम प्रध्यं १६१ निजानन्दके माहि हैं, सर्व अर्थ परसिद्ध । अष्टम सोतम पायो सहजही, नमतमिले नवनिद्ध ॥ॐ ह्रीग्रहं सर्वाथसिद्धेम्योनम अध्य। १६२ पूजा अति सूक्षम जे अर्थ है, काय काय कहाय । २७८ साक्षात् सबको लखो, बन्दू तिनके पांय ॥ ॐ ह्रींप्रहंसाक्षात्कारिणेनम मध्यं ।१६३
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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