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________________ सिद्ध० वि० २२४ गवंत महासुखकारा, तुम ज्ञान महा श्रविकारा । तुम गुरण श्रनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्री पाठकदर्शनस्वरूपाय नम अध्यं ।। ३२६ ॥ निरशंस अनन्त प्रबाधा, निज बोधन भाव भराधा । तुम गुरण ० ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वाय नम अर्घ्यं ॥ २२७ ॥ सम्यक्त्व महासुखकारी, निज गुरण स्वरूप अविकारी । तुम गुरण० ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वगुरणस्वरूपाय नम अयं ।। ३२८ । निरखेद छेद प्रभेदा, सुख रूप वीर्य निवेंदा । तुम गुरण० ॐ ह्री पाठकवीर्याय नम श्रध्यं ।। ३२६ ।। निज भोग कलेश न लेशा, यह वीर्य अनन्त प्रदेशा । तुम गुरग० ॐ ह्री पाठकवीर्यं गुणाय नमः अर्घ्य ॥ ३३० ।। परनाम सुथिर निज माहीं, उपजै न कलेस कदाही । तुम गुरग० सप्तमी ही पाठकवीर्यपर्यायाय नमः मध्यं ।। ३३१ ॥ पूजा द्रव्य भाव लहो तुम जैसो, पावै जगजन नहिं ऐसो । तुम गुरग० ही पाठकवीर्यद्रव्याय नम अध्यं ।। ३३२ ।। २२४
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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