SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिद्ध० वि० २२२ आदि अनत अविरुद्ध मंगलमय मूरति । निज सरूपमे बसै सदा परभाव विदूरित । शिष्यनके० - ॐ ह्री पाठकद्रव्य मगलाय नम प्रय॑ ।।३१४॥ जितनी परणति धरो सबहि मंगलमय रूपी, अन्य अवस्थित टार धार तद्रूप अनूपी। शिष्यनके० ॐ ह्री पाठकमगलपर्यायाय नम प्रध्यं ।।३१५।। निश्चय वा विवहार सर्वथा मंगलकारी, जग जीवनके विघन विनाशन सर्व प्रकारी। शिष्यनके० ॐ ह्री पाठकद्रव्यपर्यायमगलाय नम अध्यं ।।३१६ । भेदाभेद प्रमारण वस्तु सर्वस्व बखानो, वचन अगोचर कहो तथा निर्दोष कहानो। शिष्यनके० ॐ ह्री पाठकद्रव्यगुणपर्यायमगलाय नम अध्यं ॥३७॥ सब विशेष प्रतिभासमान मंगलमय भासे, निर्विकल्प प्रानन्दरूप अनुभूति प्रकाशे । शिष्यनके० ॐ ह्री पाठकस्वरूपमगलाय नम अयं ॥३१८।। सप्तमी पूजा २२२
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy