SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥५॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणादसण वीर्य सुहमत्तहेव सिद० अवग्गहण अगुरुलघुमव्वावाह क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० । पूरण ज्ञानानन्द ज्योति घन, विमल गुरणातम शुद्ध स्वरूपी। १५४ हो तुम पूज्य भये हम पूजक, पाय विवेक प्रकाश अनूपी॥ मोह अन्ध विनसो तिह कारण, दीपनसों अ— अभिरामी। द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥६॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणादसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुमव्यावाह मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । धूप भरै उघरे प्रजरें मरिण, हेम घरें तुम पदपर वारू। बार बार पावर्त जोरि करि, धार धार निज शीश न हारू॥ धूम धार समतन रोमांचित, हर्ष सहित अष्टांग नमामी। द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥७॥ ॐ ह्री श्रोसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव प्रवग्गहण अगुरुल घुमव्वावाह अष्टकर्मदहनाय धूप नि० । सप्तमी पूजा १५४
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy