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________________ सिद्ध० वि● १४६ न की प्रवाह है, अचाह है न चाह है । निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही || २४३॥ ॐ ह्री स्वानन्दसतोषाय नम अर्घ्यं । सोरठा - रागादिक परिणाम, है कारण संसार के । नाश, लियो सुखधाम, नमत सदा भव भय हरू ॥ २४४ ॥ ॐ ह्री शुद्धभाव पर्यायाय नम. अर्घ्यं । उदइक भाव विनाश, प्रगट कियो निज धर्मको । स्वातम गुरण परकाश, नमत सदा भव भय हरू ॥२४५॥ ॐ ह्री स्वतत्रधर्माय नमः अयं । निजगुरण पर्ययरूप, स्वयं - सिद्ध परमातमा । राजत हैं शिव भूप, नमत सदा भव भय हरू ॥ २४६ ॥ ॐ ह्री आत्मस्वभावाय नमः अर्घ्य । विमल विशद निज ज्ञान, है स्वभाव परिणतिमई । राजे हैं सुखखानि, नमत सदा भव भय हरू ॥ २४७॥ ॐ ह्री परमचित्परिणामाय नम अर्घ्यं । षष्ठम पूजा १४६
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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