SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध वि. १३१ चौपई-हीनाधिक नहीं भाव विशेष, प्रातमीक आनन्द हमेश। सम स्वभाव सोई सुखराज, प्रणमसिद्ध मिट भववास ॥१७१६ ॐ ह्री समस्वभावाय नमः मध्य ।।१७१।। इष्टानिष्ट मिटो भम जाल, पायो निज आनन्द विशाल । साम्य सुधारसको नित भोग, नमूसिद्ध सन्तुष्ट मनोग। ॐ ह्री सतुष्टाय नम अध्यं ॥१७२।। पर पदार्थ को इच्छुक नाहि, सदा सुखी स्वातम पद माहि । मेटो सकल राग अरु दोष, प्रणम् राजत सम सन्तोष ॥ ॐ ह्री समसंतोषाय नम अध्यं ॥१७॥ मोह उदय सब भाव नसाय, मेटो पुद्गलीक पर्याय । शुद्ध निरंजन समगुण लहो, नमू सिद्ध परकृत दुख दहो॥ ॐ ह्री साम्यगुणाय नमः मध्य ।।१७४। निजपदसों थिरता नहिं तजे, स्वानुभूत अनुभव नित भजै। निराबाध तिष्ठ अविकार, साम्यस्थाई गुरण भण्डार ॥ ॐ ह्री साम्यस्थाय नमः अयं ॥१७॥ षष्ठम् पूजा
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy