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________________ सिद्ध वि० ग्रेवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाहं संसारतापविनाशनाय चन्दन ।।२।। परिणाम धवल सुवर्ण अक्षत मलिन मन न लगावहीं, तिस सार अक्षय अखय स्वच्छ सुवास पुंज बनावहीं। यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावहीं॥ हूँ अर्ध शत षट अधिक नाम उचार विरद सु गावहीं॥ ॐ ह्री श्रीसिद्ध परमेष्ठिने दो सौ छप्पन गुण सहित विराजमान श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाह प्रक्षयपद प्राप्तये प्रक्षत निर्वपामोति स्वाहा। __ मन पाग भक्त्यनुराग प्रानन्द तान माल पुरावही । तिस भाग कुसुम सुहाग अर सुर नागबास सु लावही ॥ यह उभय० । अर्द्ध शत षट०॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने दो सौ छप्पन गुंण सहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण मगुरुलघुमब्वावाह कामवाग्ग विनाशनाय पुष्प निवपामीति स्वाहा। जिन भक्ति रसमें तृप्तता मन पान स्वाद न चावही। षष्ठम अंतर चरू बाहिज मनोहर रसिक नेवज लावही ॥ यह उभय० । अर्द्ध शत षट०॥
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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