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________________ सिद्ध० IRANT मायायुत वचननको प्रयोग, संरम्भ करावत अशुभ भोग । तुम यह कलंक नहीं धरो लेश, हो अमृत शशि पूजू हमेश ॥७॥ ॐ ह्री प्रकारितवचनमायासरम्भ अमृतचन्द्राय नमः अध्यं । वच मायायुत संरम्भ कीन, सो पापरूप भावी मलीन । तिस त्याग अनेक गुरणात्म रूप, राजत अनेक मूरत अनूप ॥७॥ ॐ ह्री नानुमोदितवचनमायासरम्भमनेकमूर्तये नम अर्घ्य । तुम समारम्भकी विधि विधान, नहिं करत कुटिलता भेद ठान । हो नित्य निरंजन भाव युक्त, मै नम् सदा संशय विमुक्त ॥८॥ ___ ॐ ह्री अकृतवचनमायासमारभनित्यनिरजनस्वभावाय नम. अर्घ्य । दोहा-मायायुत निज बैनतै, समारंभके हेत। नहिं प्रेरित परको नमू, निजगुण धर्म समेत ॥१॥ ___ॐ ह्री अकारित वचनमायासमारभप्रात्मकधर्माय नम. अर्घ्य । मायाकरि बोलत नहीं, समारंभ हर्षाय । सूक्ष्म अतीन्द्रिय वृष नमू, नमसिद्ध मन लाय ॥२॥ ॐ ह्री नानुमोदितवचन मायासमारमात्मैकधर्माय नम' अर्घ्य । AM
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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