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________________ -- हिंसा का विवेक - जैसे विकार होते है, वैसे ही उसमे भी होते है । जो वनस्पति की हिंसा करते है, उनको हिंसा का भान नहीं होता । जो मुनि वनस्पति की हिंसा को जानता है, वही सच्चा कमैन है । [४५-४७ ] ___ अंडज, पोतज, जरायुज, रमज, संस्वेदज, संमूर्छिम उनभिज और औपपातिक ये सब स जीव है। अज्ञानी और मंदमति लोगो का बारबार इन सब योनियों में जन्म लेना ही संसार है। जगत् में जहा देखो वही अातुर लोग इन जीवो को दु.ख देते रहते हैं। ये जीव सब जगह त्रास पा रहे हैं। कितने ही उनके शरीर के लिये उनका जीव लेते हैं, तो कितने उनके घमहे के लिये, मांस के लिये, लोही के लिये, हृदय के लिये, पीछी के लिये, वाल के लिये, सींग के लिये, दांत (हाथी के ) के लिये, दाढ़ के लिये, नख के लिये, प्रांत के लिये, हड्डी के लिये, अस्थि मज्जा के लिये, आदि अनेक प्रयोजनो के लिये ब्रस जीवो की हिंसा करते हैं, और कुछ लोग बिना प्रयोजन के ब्रस जीवो की हिंसा करते हैं। परन्तु प्रत्येक जीव की शांति का विचार कर के, उसे बराबर समझ कर उनकी हिंसा न करे। मेरा कहना है कि सब जीवो को पीडा, भय और अशांति दुःखरूप है, इसलिये, बुद्धिमान् उनकी हिंसा न करे, न करावे । [४८-५४ ] इसी प्रकार वायुकाय के जीवो को समझो । श्रासक्ति के कारण विविध. प्रवृत्तियो द्वारा वायु की तथा उसके साथ ही अनेक जीवों की वे हिंसा करते हैं क्योकि अनेक उड़ने वाले जीव भी झपट में आ जाते है और इस प्रकार आघात, संकोच, परिताप और विनाश को प्राप्त होते हैं। [२८-२६] .
SR No.010795
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherGopaldas Jivabhai Patel
Publication Year
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size5 MB
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