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________________ ९० युगवीर-निबन्धावली खिलाने या पखा झलने आदि किस सेवा-शुश्रूषाके कामपर वह वेश्यापुत्री रक्खी गई थी, इसका आपने कहीपर भी कोई उल्लेख नही किया और न कहीपर यही प्रकट किया कि चारुदत्त अमुक अवसरपर अपनी उस चिरसगिनी और चिरभुक्ता वेश्यासे पुनः सभोग न करने या उससे काम-सेवा न लेनेके लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो चुके थे अथवा उन्होने अपनी एक स्त्रीका ही व्रत ले लिया था। यही आपकी इस आपत्तिका सारा रहस्य है, और इसके समर्थनमे आपने जिनसेनाचार्यके हरिवणपुराणसे सिर्फ एक श्लोक उद्धृत किया है, जो आपके ही अर्थके साथ इस प्रकार है .--- "तां सु ['शु] श्रूपाकरी [री] स्वस्तू: [श्वश्र्वाः ] आर्यां ते व्रतसंगतां । श्रुत्वा वसतसेनां च प्रति. [प्रीतः ] स्वीकृतवानहम् ॥" 'अर्थ-वेश्या वसन्तसेना अपनी माँका घर परित्याग कर मेरे घर आगई थी। और उसने आर्यिकाके पास जो श्रावकके व्रत धारण कर मेरी माँ और स्त्रीकी पूर्ण सेवा की थी इसलिए मैं उससे भी मिला उसे सहर्ष अपनाया ।" १. ब्रैकटोंमे जो रूप दिये हैं वे समालोचकजीके दिये हुए उन अक्षरोंके शुद्ध पाठ है जो उनसे पहले पाये जाते हैं। २. इसकी जगह "सदणुव्रतसगताम्" ऐसा पाठ देहलीके नये मदिरकी प्रतिमें पाया जाता है। ३. मूल श्लोकके शब्दोंसे उसका स्पष्ट और सगत अर्थ सिर्फ इतना ही होता है : 'और वसंतसेनाके विपयमे सासकी ( मेरी माताकी ) सेवा करने तथा आर्यिकाके पाससे व्रत ग्रहण करनेका हाल सुनकर मैंने प्रसन्नतापूर्वक उसे स्वीकार किया--अगीकार किया ।'
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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