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________________ ८६२ युगवीर-निवधावली से काम लेकर और अपनी वर्तमान परिस्थितियो एव आवश्यकताओको ध्यानमे रखकर जो हितरूप परिवर्तन है उसे करना ही चाहिये । इसमे आगमसे कोई बाधा नही आती और न किसी शास्त्राज्ञाका विरोध ही घटित होता है। आगम-शास्त्र सदासे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके अनुसार परिवर्तनकी बात कहते आए हैं और जिनशासनमे परीक्षापूर्वकारिताकी ही प्रधानता रही है, न कि रूढ़ि-पालनकी। इसीसे रूढिचुस्तता अथवा सम्प्रदायचुस्तता ( कट्टरता) कोई मोक्षमार्ग नही, ऐसा जो मुनिजीने लिखा है और बाडानिष्ठाको हीनवृत्ति वतलाया है वह सब ठीक ही है। यह एकान्तको अपनाने और अनेकान्तकी ओर पीठ देनेके परिणाम है, इसीसे परस्पर संघर्ष तथा विरोध चलता है, अन्यथा अनेकान्त तो विरोधका मथन करने वाला है, तब अनेकान्तके उपासकोमे विरोध कैसा ? विरोधको देखकर यही कहना पडता है कि वे अपनेको अनेकान्तके उपासक कहते जरूर है, परन्तु अनेकान्तकी उपासनासे कोसो दूर है, और यह उनके लिए बडी ही लज्जा, शरम तथा कलककी बात है। ___अनेकान्त दृष्टिको, जिसे स्वामी समन्तभद्रने सती-सच्ची दृष्टि बतलाई है और जिससे युक्त न होनेवाले सब वचनोको मिथ्या वचन घोषित किया है, अपनाये तथा अपने जीवनमे उतारे बिना जैनधर्म अथवा जिनशासनका कोई प्रचार-प्रसार नही बनता। स्वय समन्तभद्र अनेकान्तके अनन्य उपासक थे, उन्होने उसे अपने जीवनमे पूर्णत उतारा था, उनकी जो कुछ भी वचनप्रवृत्ति होती थी वह सब लोकहितकी दृष्टिको लिए १. अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्व मृषोक्त स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ॥ (स्वयम्भूस्तोत्र )
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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