SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 866
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८५८ युगवीर-निवन्धावली "परन्तु अव खेदकी स्थितिमे न पढा रहकर समयको पहचानते हुए चतुर्विध सघको जैनधर्मका विस्तार करने के लिए कटिवद्ध हो जाने की आवश्यकता है। प्रचारके लिये आवश्यक है व्यापक दृष्टि, व्यापक भावना और व्यापक मिशन ।"...." "जब तक हमारी अन्दरकी संकुचित दृष्टि और बाडावंदीकी मनोदशा दूर नहीं हो जाती, तबतक 'सब जीव करूं शासन रसी' की भावनाको साकार रूप मिलना सभव नही है।" "शाखाओके बीचकी भेदक व अवरोधक दीवालोको दूर करना आवश्यक है। इसीमे जिन-शासनकी मुख्य सेवा समाई हई है फिर भी क्रियाकाडकी योजनाओम 'रुचीना वैचित्र्यात्' अर्थात् रुचिभेदके कारण सामान्य अन्तर हो तो उसे महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। जैसे सब अपनी-अपनी रुचिके अनुसार भोजन करते हैं, वैसे ही सबको अपनी-अपनी रुचिके अनुसार क्रियाकाड करते रहना चाहिए।" "परन्तु शाखाओके बीच जो वडे अवरोधक हैं, उनका इलाज किये बिना चल नही सकता। यदि जिनशासनका लाभ ससारके विशाल प्रदेशमे प्रसारित करना हो तो दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक आदि भिन्न-भिन्न प्रवाहोमे जो संघर्ष चल रहा है उसे अब मिटा देना ही होगा। इन प्रवाहोके प्रश्न ऐसे नही कि इनका हल न निकले। मन साफ हो तो सुसगति साध्य है। दीर्घकालके सस्कार तथा परम्पराका शोधन होना अवश्य कठिन है, परन्तु सत्यके अन्वेषक सत्य-भक्त, मध्यस्थ चिन्तन द्वारा सत्यका अवलोकन होनेपर असत्यकी दीर्घकालीन पोषित वासनाको दूर कर देनेका सामर्थ्य दिखा सकते हैं। यह समझ लेना चाहिए कि वाडानिष्ठा हीनवृत्ति है, जब कि सत्य
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy