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________________ भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि-निन्दा ८५३ यदि विचार-क्षेत्रमे अथवा वस्तु-निर्देशके रूपमे कुछ मुनियोके दोषोको व्यक्त करना भी मुनि-निन्दामे दाखिल हो तो जिन महान् आचार्योन कतिपय मुनियोको भवाभिनन्दी, आहार-भयमैथुनादि-सज्ञाओके वशीभूत, लोकाराधनके लिए धर्मक्रिया करनेवाले मलिन अन्तरात्मा लिखा है, उनके लिए मूढ (मिथ्यादृष्टि) लोभपरायण, कर, भीरु ( डरपोक ), असूयक ( ईर्ष्यालु), शठ ( अविवेकी )-जैसे शब्दोका प्रयोग किया है, उन्हे मुक्ति-द्वेषी तक बतलाया है तथा लौकिक-कार्योंमे प्रवृत्त करनेवाले लौकिकजन एव असयत ( अमुनि ) घोषित किया है, वे सब भी मुनिनिन्दक ठहरेंगे और तब ऐसी मुनि-निन्दासे डरनेका कोई भी युक्तियुक्त कारण नही रह जायगा। परन्तु वास्तवमे वे महामुनि मुनि-निन्दक नही थे और न कोई उन्हे मुनि-निन्दक कहता या कह सकता है। उन्होंने वस्तुतत्वका ठीक निर्देश करते हुए उक्त सब कुछ कहा है और उसके द्वारा हमारी विवेककी आंखको खोला है-यह सुझाया है कि बाह्यमे परमधर्मका आचरण करते हुए देखकर सभी मुनियोको समानरूपसे सच्चे मुनि न समझ लेना चाहिए, उनमे कुछ ऐसे भेषी तथा दम्भी मुनि भी होते हैं जो मुक्ति-प्राप्तिके लक्ष्यसे भ्रष्ट हुए लौकिककार्योंकी सिद्धि तथा ख्याति-लाभ-पूजादिकी दृष्टिसे ही मुनिवेषको धारण किये हुए होते हैं। ऐसे मुनियोको भवाऽभिनन्दी मुनि बतलाया है और उनके परखनेकी कसौटीको भी 'संज्ञावशीकृता', 'लोकपक्तिकृतादरा', 'लोमपरा' आदि विशेषणोके रूपमे हमें प्रदान किया है। इस कसौटीको काममे न लेकर जो मुनिमात्रके अथवा भवाऽभिनन्दी मुनियोके अन्धभक्त बने हुए हैं, उन अन्धश्रद्धालुओको विवेकी नही कहा जा सकता और अविवेकियोकी पूजा, दान, गुरुभक्ति आदि सब धर्मक्रियायें धर्मके यथार्थफलको
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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