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________________ ८४८ युगवीर- निबन्धावली उससे श्रेष्ठ है । इसमे मैं इतना ओर जोड देना चाहता हूँ कि अविवेकी मुनिसे विवेकी गृहस्थ भी श्रेष्ठ है और इसलिये उसका दर्जा अविवेकी मुनिसे ऊँचा है । जो भवाभिनन्दी मुनि मुक्ति से अन्तरगमे द्वेष रखते हैं वे जैन मुनि अथवा श्रमण कैसे हो सकते हैं ? नही हो सकते । जैन मुनियोका तो प्रधान लक्ष्य ही मुक्ति प्राप्त करना होता है । उसी लक्ष्यको लेकर जिनमुद्रा धारणकी सार्थकता मानी गई है ' । यदि वह लक्ष्य नही तो जैन मुनिपना भी नही, जो मुनि उस लक्ष्यसे भ्रष्ट हैं उन्हे जैन मुनि नही कह सकते – वे भेषी - ढोगी मुनि अथवा श्रमणाभास है । 1 ――― श्री कुन्दकुन्दाचार्यने, प्रवचनसारके तृतीय चारित्राधिकारमे ऐसे मुनियोको 'लोकिकमुनि' तथा 'लौकिकजन' लिखा है | लौकिकमुनि-लक्षणात्मक उनकी वह गाथा इस प्रकार है. णिग्गंथो पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहि । सो लोगिगोत्ति भणिदो संजम-तव-संजुदो चावि ||६९ || इस गाथामे बतलाया है कि 'जो निर्ग्रन्थरूपसे प्रव्रजित हुआ है - जिसने निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन मुनिकी दीक्षा धारण की है - वह यदि इसे लोक-सम्बन्धी सासारिक दुनियादारीके कार्यो प्रवृत्त होता है तो तप - सयमसे युक्त होते हुए भी उसे 'लौकिक' कहा गया है ।' वह परमार्थिक मुनि न होकर एक प्रकारका सासारिक दुनियादार प्राणी है। उसके लौकिक कार्यों में प्रवर्तनका आशय मुनि-पदको आजीविकाका साधन बनाना, ख्याति - लाभ - पूजादिके लिए सब कुछ क्रियाकाण्ड करना, वैद्यक - ज्योतिष-मन्त्र-तन्त्रादिका व्यापार करना, पैसा बटोरना, १. मुक्ति यियासता धायें जिनलिग पटीयसा । ( योगसार प्रा०८ - १ )
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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