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________________ भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि-निन्दा ८४३ अमितगति प्रथमने योगसार-प्राभृतके आठवें अधिकारमे लिखा है भवाऽभिनन्दिनः केचित् सन्ति संज्ञा-चशीकृताः। कुर्वन्तोऽपि परं धर्म लोक-पंक्ति-कृतादराः॥१८॥ 'कुछ मुनि परम धर्मका अनुष्ठान करते हुए भी भवाभिनन्दी-ससारका अभिनन्दन करनेवाले अनन्त ससारी तकहोते हैं, जो कि सज्ञामओके' -आहार, भय, मैथुन और परिग्रह नामकी चार सज्ञाओ-अभिलाषाओके-वशीभूत है और लोकपक्तिमे आदर किये रहते हैं-लोगोके आराधने-- रिझाने आदिमे रुचि रखते हुए प्रवृत्त होते हैं ।' ___ यद्यपि जिनलिंगको-निर्ग्रन्थ जैनमुनि-मुद्राको-धारण करनेके पात्र अति निपुण एवं विवेक-सम्पन्न मानव ही होते है। फिर भी जिनदीक्षा लेनेवाले साधुओमे कुछ ऐसे भी निकलते हैं जो बाह्यमे परम धर्मका अनुष्ठान करते हुए भी अन्तरगसे संसारका अभिनन्दन करनेवाले होते हैं। ऐसे साधु-मुनियोकी पहचान एक तो यह है कि वे आहारादि चार सज्ञाओके अथवा उनमेसे किसीके भी वशीभूत होते हैं, दूसरे लोकपक्तिमेलौकिकजनो-जैसी क्रियाओके करनेमे—उनकी रुचि बनी रहती है और वे उसे अच्छा समझकर करते भी हैं। आहारसज्ञाके वशीभूत मुनि बहुधा ऐसे घरोमे भोजन करते हैं जहाँ अच्छे रुचिकर एव गरिष्ठ-स्वादिष्ट भोजनके मिलनेकी अधिक १. आहार-भय-परिग्गह-मेहुण-सण्णाहि मोहितोसि तुमं । भमिओ ससारवणे आणाइकाल भणप्पवसो ॥१०॥ - कुन्दकुन्द, भावपाहुड २. मुक्ति यियासता धायें जिनलिंग पटीयसा । योगसार प्रा०, ८-१
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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