SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 837
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२९ जैन कालोनी और मेरा विचार-पत्र बगावत पर तुले हुए हैं और बहुतोकी स्वार्थपूर्ण भावनाएँ एवं अविवेकपूर्ण स्वच्छन्द-प्रवृत्तियाँ उसे तहस-नहस करनेके लिये उतारू हैं, और इस तरह वे अपने तथा उसे देशके पतन एवं विनाशका मार्ग आप ही साफ कर रहे हैं। यह सब देखकर भविष्यकी भयङ्करताका विचार करते हुए शरीरपर रोगटे खडे होते हैं और समझमे नहीं आता कि तब धर्म और धर्मायतनोका क्या' बनेगा। और उनके अभावमें मानव-जीवन कहाँ तक मानवजीवन रह सकेगा ।। दूषित शिक्षा प्रणालीके शिकार बने हुए सस्कारविहीन जनयुवकोकी प्रवृत्तियाँ भी आपत्तिके योग्य हो चली है-वे भी प्रवाहमे बहने लगे हैं, धर्म और धर्मायतनोपरसे उनकी श्रद्धा उठती जाती है, वे अपने लिये उनकी जरूरत ही नही समझते, आदर्शकी थोथी बातो और थोथे क्रियाकाण्डोसे वे ऊब चुके हैं, उनके सामने देशकालानुसार जैन-जीवनका कोई जीवित आदर्श नही है, और इसलिये वे इधर-उधर भटकते हुए जिधर भी कुछ आकर्पण पाते हैं उधरके ही हो रहते है। जैनधर्म और समाज के भविष्यकी दृष्टिसे ऐसे नवयुवकोका स्थितिकरण बहुत ही आवश्यक है और वह तभी हो सकता है जब उनके सामने हरसमय जैन-जीवनका जीवित उदाहरण रहे। इसके लिये एक ऐसी जैनकालोनी--जैनवस्तीके बसानेकी बडी जरूरत है जहाँ जैन-जीवनके जीते जागते उदाहरण मौजूद हो--चाहे वे गृहस्थ अथवा साधु किसी भी वर्गके प्राणियोके क्यो न हो, जहाँ पर सर्वत्र मूर्तिमान जैनजीवन नजर आए और उससे देखनेवालोको जनजीवनकी सजीव प्रेरणा मिले, जहाँका वातावरण शुद्ध-शात-प्रसन्न और जैनजीवनके अनुकूल अथवा उसमे सब प्रकारसे सहायक हो, जहाँ प्रायः ऐसे ही
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy