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________________ ८२२ युगवीर-निवन्धावली तक विषयको स्पष्ट करता है और किस हद तक सन्तोषजनक है, इसे सहृदय पाठक एव विद्वान महानुभाव स्वयं अनुभव कर सकते हैं। मै तो, अपनी समझके अनुसार, यहाँपर सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि इस उत्तर-पक्ष का पहला विभाग तो बहुत कुछ स्पष्ट है। गोत्रकर्म जिनागमकी खास वस्तु है और उसका वह उपदेश जो उक्त मूलसूत्रमे संनिविष्ट है, अविच्छिन्न ऋषि-परम्परासे बराबर चला आता है। जिनागमके उपदेष्टा जिनेन्द्रदेव-भ० महावीर-राग, द्वेष, मोह और अज्ञानादि दोपोसे रहित थे। ये ही दोष असत्यवचनके कारण होते हैं । कारणके अभावमे कार्यका भी अभाव हो जाता है, और इसलिए सर्वज्ञ-वीतराग-कथित इस गोत्रकर्मको असत्य नही कहा जासकता, न उसका अभाव ही माना जासकता है। कम-से-कम आगम-प्रमाण-द्वारा उसका अस्तित्व सिद्ध है। पूर्वपक्षमे भी उसके अभावपर कोई विशेष जोर नही दिया गया मात्र उच्चगोत्रके व्यवहारका यथेष्ट निर्णय न हो सकनेके कारण उकताकर अथवा आनुषंगिक रूपसे गोत्रकर्मका अभाव बतला दिया गया है। इसके लिये जो दूसरा उत्तर दिया गया है वह भी ठीक ही है। निः सन्देह, केवलज्ञान-गोचर कितनी ही ऐसी सूक्ष्म बातें भी होती हैं जो लौकिक ज्ञानोका विषय नही हो सकती अथवा लौकिक साधनोसे जिनका ठीक बोध नही होता, और इसलिये अपने ज्ञानका विषय न होने अथवा अपनी समझ मे ठीक न बैठनेके कारण ही किसी वस्तु-तत्वके अस्तित्वसे इनकार नही किया जासकता। ___ हाँ, उत्तरपक्षका दूसरा विभाग मुझे बहुत कुछ अस्पष्ट जान पड़ता है। उसमे जिन पुरुषोकी संतानको उच्चगोत्र नाम दिया गया है उनके विशेषणोपरसे उनका ठीक स्पष्टीकरण नही
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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