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________________ ५२ ऊँच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ? ८१७ उसकी उत्पत्तिमे कोई कारण नही है। दूसरे, तिथंच और नारकियोमे भी सम्यग्ज्ञानका सद्भाव पाया जाता है, तब उनमे भी उच्चगोत्रका उदय मानना पड़ेगा और यह बात सिद्धान्तके विरुद्ध होगी-सिद्धान्तमे नारकियो और तियंचोके नीच' गोत्रका उदय बतलाया है। (४) "नादेयत्वे यशसि सौभाग्ये वा व्यापारस्तेषां नामत स्लमुत्पत्तेः।" अर्थात्-यदि आदेयत्व, यश अथवा सौभाग्यके साथमे उच्चगोत्रका व्यवहार माना जाय-जो आदेयगुणसे विशिष्ट ( कान्तिमान् ), यशस्वी अथवा सौभाग्यशाली हो उन्हे ही उच्चगोत्री कहा जाय तो यह बात भी नही बनती , क्योकि इन गुणोकी उत्पत्ति आदेय, यश. और सुभग नामक नामकर्म, प्रकृतियोके उदयसे होती है-उच्चगोत्र उनकी उत्पत्तिमे कोई कारण नहीं है। (५) "नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्तौ [व्यापारः], काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्वाद्, विड्-ब्राह्मण-साधु (शूद्रे ? ) ष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयदर्शनात् ।” अर्थात् यदि इक्ष्वाकु-कुलादिमें उत्पन्न होनेके साथ ऊँच गोत्रका व्यापार माना जाय--जो इन क्षत्रियकुलोमे उत्पन्न हो उन्हे ही उच्चगोत्री कहा जाय--तो यह बात भी समुचित प्रतीत नही होती, क्योकि प्रथम तो इक्ष्वाकु आदि क्षत्रियकुल काल्पनिक हैं, परमार्थसे (वास्तवमें) उनका कोई अस्तित्व नही है। दूसरे, वैश्यो, ब्राह्मणो और शूद्रोमें भी उच्चगोत्रके उदयका विधान पाया जाता है। (६) 'न सम्पन्नेभ्यो जीवोत्पत्तौ तदव्यापारः, म्लेच्छराज समुत्पन्न-पृथुकस्यापि उच्चैोत्रोदयप्रसंगात् ।'
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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