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________________ क्या मुनि कदमूल खा सकते हैं ? ७९३ जं हवदि अणबीयं णिवट्टियं फासुयं कयं चेव । णाऊण एसणीयं तं भिक्खं मुणी पडिच्छन्ति ॥९-६०॥ टीका-यद्भवत्यबीजं निर्बीज निर्वतिम निर्गतमध्यसार प्रासुक कृत चैव ज्ञात्वाऽशनीय तद्भक्ष्य मुनयः प्रतीच्छन्ति ।। इन दोनो गाथाओमेसे पहली गाथामे मुनिके लिये 'अभक्ष्य क्या है' और दूसरीमे 'भक्ष्य क्या है इसका कुछ विधान किया है । पहली गाथामे लिखा है कि जो फल, कद, मूल तथा बीज अग्निसे पके हुए नहीं हैं और भी जो कुछ कच्चे पदार्थ हैं उन सवको अनशनीय ( अभक्ष्य ) समझकर वे धीर मुनि भोजनके लिये ग्रहण नही करते हैं।' दूसरी गाथामे यह बतलाया है कि जो बीजरहित हैं, जिनका मध्यसार ( जलभाग ? ) निकल गया है अथवा जो प्रासुक किये गये हैं ऐसे सब खानेके पदार्थोको भक्ष्य समझकर मुनि लोग भिक्षामे ग्रहण करते हैं । मूलाचारके इस सपूर्ण कथनसे यह बिलकुल स्पष्ट है और अनशनीय कद-मूलोका 'अनग्निपक्व' विशेषण इस बातको साफ बतला रहा है कि जैन मुनि कच्चे कद नही खाते परन्तु अग्निमें पकाकर शाक-भाजी आदिके रूपमे प्रस्तुत किये हुए कद-मूल वे जरूर खा सकते हैं। दूसरी गाथामे प्रासुक किये हुए पदार्थोंको भी भोजनमे ग्रहण कर लेने का उनके लिए विधान किया गया है। यद्यपि अग्निपक्व भी प्रासुक होते हैं, परन्तु प्रासुककी सीमा उससे कही अधिक बढी हुई है। उसमे सुखाए, तपाए, खटाई-नमक मिलाए और यत्रादिकसे छिन्न-भिन्न किये हुए सचित्त पदार्थ भी शामिल होते हैं, जैसा कि निम्नलिखित शास्त्रप्रसिद्ध गाथासे प्रकट है। सुकं पकं तत्तं अंविल लवणेहि मिस्सियं दववं । जं जंतेण य छिपणं तं सब्बं फासुयं भणियं !!
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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