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________________ । पापका वाप ७७५ है और निराकुलता आवश्यकताओको घटाकर-परिग्रहको कम करके-सतोष धारण करनेसे प्राप्त होती है। जो सतोपी मनुष्य हैं वे निराकुल होने से सुखी है, तृष्णावान और असतोपी मनुष्योको कदापि निराकुलता नही हो सकती और इसलिये वे सदा दुखी रहते हैं। कहा भी है: "सतोषान्न परं सुखम्", "कि दारिद्रयमसंतोप', 'असतोषोमहान्याधि' अर्थात्--संतोषसे बढकर और कोई दूसरा सुख नही है। दारिद्र कौन है ? असतोप और सवसे बड़ी बीमारी कौन-सी है ? असतोप। भावार्थ--जो असतोपी हैं वे अनेक प्रकारकी धन-सम्पदाके विद्यमान होते हुए भी दरिद्री और रोगीके तुल्य दुखो रहते हैं। इसलिये सुख चाहनेवाले भाइयोको लोभका त्यागकर सतोप धारण करना चाहिये । यहाँ इस कथनसे यह प्रयोजन नही है कि सर्वथा लोभका त्यागकर धन कमाना ही छोड देना चाहिए, धन अवश्य कमाना चाहिए, विना धनके गृहस्थीका काम नही चल सकता, परन्तु धन न्याय-पूर्वक कमाना चाहिये, अन्याय मार्गसे कदापि धन पैदा नही करना चाहिये। अर्थात् ऐसे अनुचित लोभका त्याग कर देना चाहिये जिससे अन्याय मार्गसे धन उपार्जन करनेकी प्रवृत्ति होवे, यही इस सारे कथनका अभिप्राय और सार है। आशा है हमारे भाई इस लेखपरसे जरूर कुछ प्रबोधको प्राप्त होगे और अपनी लोभ-कपायके मद करनेका प्रयत्न करेंगे। अपने चित्तको अन्याय मार्गसे हटानेके लिये उन्हे नीतिशास्त्रो, आचरण-ग्रन्थो और पुराण-पुरुषोके चरित्रोका बराबर नियमपूर्वक अवलोकन तथा स्वाध्याय करना चाहिये और सदा इस बातको ध्यानमें रखना चाहिये कि लक्ष्मी चचल है, न सदा किसीके
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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