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________________ शुभ भावना मैं आचार्य श्री तुलसीको उस वक्तसे कुछ-न-कुछ सुनता, जानता तथा अनुभवमे लाता आ रहा हूँ, जब वे सितम्बर १९३६ मे आचार्य पदपर प्रतिष्ठित हुए थे। उस समय पत्रोमे उनके अनुकूल-प्रतिकूल अनेक आलोचनाएं निकली थी, जिनमे उन्हे 'नाबालिग आचार्य' तक कहकर भी कुछ खिल्ली उडाई गई थी। और इसलिए उक्त साधनो द्वारा मुझे जो कुछ भी परिचय आचार्यश्रीका अबतक प्राप्त होता रहा है उन सबके आधार पर इतना निश्चित ही है कि आचार्य श्रीतुलसीजीने बडी योग्यताके साथ अपने पदका निर्वाह किया है। इतना ही नही, उसकी प्रतिष्ठाको आगे बढाया है। उनके गुरु महाराजने आचार्य-पद प्रदानके समय उनमे जिस योग्यता और शक्तिका अनुभव किया था उसे साक्षात् सत्य सिद्ध करके बतलाया है। वे उस वक्तकी अनुकूल आलोचनाओ पर हर्षित और प्रतिकूल आलोचनाओपर क्षुभित न होकर अपने कर्तव्यकी ओर अग्रसर हुए । उन्होने समदर्शित्व और सहनशीलताको अपनाकर अपनी योग्यताको उत्तरोत्तर बढानेका प्रयत्न किया। नैतिकताका पूरा ध्यान रखते हुए ज्ञान और चरित्रको उज्ज्वल एव उन्नत वनाया। उसीका यह फल है कि वे प्रतिकूलोको भी अनुकूल बना सके और इतने बड़े साधु-साध्वी-सघका बाईस वर्षकी अवस्थासे ही बिना किसी खास विरोधके सफल सचालन कर सके हैं। आपके सत्प्रयत्नसे कितने ही साधु-साध्वीजन अच्छी शिक्षा एव योग्यता
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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