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________________ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश ७१ अपनी जातीय तथा सघशक्तिको निर्बल और नि सत्त्व वनाकर अपने ऊपर अनेक प्रकारकी विपत्तियोको बुलानेके लिये कमर कसे हुए हैं। ऐसे लोगोको चारुदत्तके इस उदाहरण-द्वारा यह चेतावनी दी गई है कि वे दण्ड-विधानके ऐसे अवसरोंपर बहुत ही सोच-समझ, गहरे विचार तथा दूरदर्शितासे काम लिया करें। यदि वे पतितोका स्वय उद्धार नही कर सकते तो उन्हे कम-से-कम पतितोके उद्धारमे बाधक न बनना चाहिये और न ऐसा अवसर ही देना चाहिये जिससे पतित-जन और भी अधिकताके साथ पतित हो जायँ । किसी पतित भाईके उद्धारकी चिन्ता न करके उसे जातिसे खारिज कर देना और उसके धार्मिक अधिकारोको भी छीन लेना ऐसा ही कर्म है जिससे वह पतित भाई, अपने सुधारका अवसर न पाकर, और भी ज्यादा पतित हो जाय, अथवा यो कहिये कि वह डूबतेको ठोकर मारकर शीघ्र डुबो देनेके समान है। तिरस्कारसे प्राय कभी किसीका सुधार नही होता, उससे तिरस्कृत व्यक्ति अपने पापकार्यमें और भी दृढ हो जाता हैं और तिरस्कारीके प्रति उसकी ऐसी शत्रुता बढ़ जाती है जो जन्म-जन्मान्तरोमें अनेक दु खो तथा कष्टोका कारण होती हुई दोनोके उन्नति-पथमे बाधा उपस्थित कर देती है। हॉ, सुधार होता है प्रेम, उपकार और सद्व्यवहार से । यदि चारुदत्तके कुटुम्बीजन, अपने इन गुणो और उदार परिणतिके कारण, वसन्तसेनाको चारुदत्तके पीछे अपने यहाँ आश्रय न देते, बल्कि यह कहकर दुत्कार देते कि 'इस पापिनीने हमारे चारुदत्तका सर्वनाश किया है, इसकी सूरत भी नही देखनी चाहिये और न इसे अपने द्वारपर खडे ही होने देना चाहिये,'
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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