SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विवाह - क्षेत्र- प्रकाश ६९ कर्मको "अपराध” शब्दसे अभिहित किया है । साथ ही, उदाहरणाश और शिक्षाशमे दिये हुए दो वाक्यो द्वारा यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि उक्त दोनो व्यसनासक्त व्यक्ति अपने उद्धारसे पहले पतित-दशामे थे, बिगडे हुए थे और उनका जीवन अधार्मिक था, एक कुटुम्ब तथा जाति-बिरादरी के सद्व्यवहारके कारण उन्हे अपने 'उद्धार' तथा 'सुधार' का अवसर मिला और उनका जीवन अन्तमे 'धार्मिक' बन गया । इतने पर भी समालोचकजी उक्त लेखमे वेश्यागमनके महोपदेशका स्वप्न देख रहे हैं और एक ऐसे व्यक्तिपर वेश्यागमनका उपदेश देकर अपनी हवस पूरी करनेका मिथ्या आरोप ( इलजाम ) लगा रहे हैं जो २५ वर्षसे भी पहले से वेश्याओके नृत्य देखने तकका त्यागी है— उसके लिये प्रतिज्ञाबद्ध है - और ऐसे विवाहोमे शामिल नही होता जिनमे वेश्याएँ नचाई जाती हो । समालोचकजोको इस बुद्धि, परिणति, सत्यवादिता और समालोचकीय कर्त्तव्य पालनकी नि सन्देह बलिहारी है। जान पडता है आप एकदम ही बहक उठे हैं और उचितानुचितको भूल गये हैं । रही वेश्याको घरमे डालने की प्रवृत्ति चलाने की बात । यद्यपि किसी घटनाका केवल उल्लेख करनेसे ही यह लाजिमी नही होता कि उसका लेखक वैसी प्रवृत्ति चलाना चाहता है, तथापि उस उल्लेख मात्र से ही यदि वैसी प्रवृत्तिकी इच्छाका होना लाजिमी मान लिया जाय तो समालोचकजीको कहना होगा कि श्रीजिनसेनाचार्य ने एक मनुष्यके जीते जी उसकी स्त्रीको घरमे डाल लेनेकी, दूसरेकी कन्याको हर लानेकी और वेश्यासे विवाह कर लेने की भी प्रवृत्तिको चलाना चाहा है, क्योकि उन्होने अपने देवर
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy