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________________ जैनजातिका सूर्य अस्त ७११ वे अव पहलेसे भी अधिक प्रकाशके उपासक बन गये, प्रकाशदाताके पदचिन्हो पर चलने लगे और प्रकाशन-कार्यको धडाधड आगे बढाने लगे। (ज) और जिसके प्रकाश-सस्कार अथवा प्रकाश-सन्ततिके फलस्वरूप ही आज समाजमे अनेक सभा-सोसाइटियाँ, प्रकाशनसंस्थाएँ, ग्रन्थमालाएँ, शिक्षासस्थाएँ-पाठशालाएँ, विद्यालय, पुस्तकालय, स्वाध्यायमडल, स्कूल, कालिज, गुरुकुल, बोडिङ्गहाउस, पत्र-कार्यालय, अनाथालय और ब्रह्मचर्याश्रम आदि प्रकाशकेन्द्र स्थापित होकर अपना-अपना कार्य करते हुए नजर आ रहे हैं, जगह-जगह नई-नई प्रकाशग्रन्थियाँ प्रस्फुटित होकर अपना-अपना प्रकाश दिखला रही हैं, और प्रकाशके उपासक ऐसी कुछ उत्कण्ठा व्यक्त कर रहे हैं जिससे मालूम होता है कि वे प्रकाशकी मूलजननी जिनवाणीमाताको अब वन्दीगृहमे नही रहने देंगे और न उसे मरने ही देंगे, जिससे हमारे इस 'सूर्य' ने भी प्रकाश पाया था और वह प्रकाश-पुञ्ज वनकर जननीकी सेवामे अग्रसर हुआ था। नि सन्देह, बाबू सूरजभानजी जैनजातिकी एक बहुत बडी विभूति थे, उसके अनुपम रत्न थे, भूषण थे और गौरव थे। वे स्वभावसे उदार थे, महामना थे, निष्कपट थे, सत्यप्रेमी थे, गुणग्राही थे और सेवाभावी थे। उनका प्राय. सारा जीवन जैनसमाजकी नि स्वार्थ-सेवा करते बीता है। उन्होने बडे-बडे सेवाकार्य किये हैं-मृतप्राय दिगम्बर जैन महासभामे जान डाली है, जैनियोको जगानेके लिये सबसे पहले उर्दूमें 'जैन-हितउपदेशक' नामका मासिक पत्र निकाला है और उसके बाद (दिसम्बर सन् १८९५ मे ) हिन्दीके साप्ताहिक पत्र 'जैनगजट'
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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