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________________ कर्मठ विद्वान् (७० शीतलप्रसादजी) ६८३ सेवक बनना चाहिये" और साथ ही यह भी बतलाया था कि 'जो भाई जैन-जातिके कर्मयोगी त्यागी होना चाहते हैं उनके लिये यह आश्रम शरणभूत है।' इसके सिवाय वे मेरे 'अनेकान्त' पत्रकी बराबर प्रशंसा करते रहे हैं और उसकी किरणोका परिचय भी "जैनमित्र" में निकालते रहे हैं। इधर जब मैंने वीर सेवामन्दिरको स्थापना की और उसके उद्घाटनमुहूर्त के उत्सवपर ब्रह्मचारीजी सरसावा पधारे तब मैंने अवसर देखकर उन्हीके हाथसे उद्घाटनकी रस्म अदा करायी थी। इससे ब्रह्मचारीजी बहुत प्रभावित हुए और उन्हे भी यह मालूम हो गया कि मेरा विरोध विचारो तक ही सीमित रहता है, कभी व्यक्तिगत विरोधका रूप धारण नहीं करता। और इसलिये अपने भाषणमे उन्होने मेरे व्यक्तित्वादिके प्रति अपनी श्रद्धाभक्तिके खुले उद्गार व्यक्त किये थे तथा रोकने पर भी जोश में आकर वीर सेवामन्दिरके लिये अपील की थी। ___अपने पिछले जीवनमे ब्रह्मचारीजीकी इच्छा भ्रमणको छोडकर एक ही स्थानपर अधिक रहनेकी हुई थी और उसके लिये उन्होने वीर सेवामन्दिरको भी चुना था और मुझे उसके सम्बन्धमें पूछा था। मैंने इसपर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उनके लिये सब कुछ सुविधाएं कर देने का आश्वासन दिया था। परन्तु फिर वे किसी कारणवश आए नही, उनका विचार कार्यमें परिणत नही हो सका । बादको वे बीमार पड गये तथा बीमारी उत्तरोत्तर बढती ही गई, जिसने अन्तको उनका प्राण ही लेकर छोडा । असाता वेदनीय कर्मके तीन उदयवश ब्रह्मचारीजीका अन्तिम जीवन कुछ कष्टमय जरूर व्यतीत हुआ है; परन्तु फिर
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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