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________________ कर्मठ विद्वान ( व्र० शीतलप्रसादजी ) ६८१ खुशीसे सह लिया करते थे और उनकी वजहसे अपने कार्योंमें बाधा अथवा विरक्तिका भाव नही आने देते थे । इसी गुण ओर धुन के कारण, जिसका एक समाज सेवीमे होना आवश्यक हैं, वे मरते दमतक समाजकी सेवा करने में समर्थ हो सके हैं । अन्यथा, उन्हे भी दूसरे कितने हो समाज सेवियोकी तरह विरक्त होकर बैठ जाना पडता । नि. सन्देह वे अपनी धुन के पक्के थे और उन्होने अपनी सेवाओ द्वारा जैन समाजके ब्रह्मचारियो एव त्यागीवर्गके लिये कर्मठताका एक आदर्श उपस्थित किया है | जैन- समाजके अधिकाश त्यागीजन अकर्मण्यताका पाठ पढते हुए समाजसे अपनी सेवा-पूजादिके रूपमे लेते तो अधिक हैं परन्तु अपनी सेवाओके रूपमे उसे देते कम हैं, यह बात व्र० शीतलप्रसादजी मे नही थी । आप समाजसे लेते कम थे और उसे देते अधिक थे । ब्रह्मचारी - जीवन से पहले जब आप बाबू शीतलप्रसादजी के नामसे प्रसिद्ध थे, बम्बई में दानवोर सेठ माणिकचन्द हीराचन्दजी जे० पी० के रत्नाकर पैलेसमे निवास करते हुए सेठजी के साथ कुटुम्ब - जैसा जीवन व्यतीत करते थे, उनके धार्मिक और समाजसेवाके कार्योंमे बडी तत्परता के साथ हाथ बटाते थे, और एक प्रकार से सेठजी के प्राइवेट सेक्रेटरी, दाहिना हाथ अथवा नाकका बाल बने हुए थे, तब कुछ लोगोको आपकी यह स्थिति बहुत अखरी और वे आपकी इस प्रतिष्ठा -प्राप्ति अथवा सेठजीके हृदयमे इस तरहसे घर करने को सहन नही कर सके । चुनाचे जैन हितैषी पत्रमे उसके तत्कालीन सम्पादक प० पन्नालालजी बालीबालने आपपर कुछ कीचड उछालना शुरू किया था । उस समय मैं साप्ताहिक जैनगजटका सम्पादक था, मुझे
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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