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________________ समाजका वातावरण दूषिन ६५५ रहे, तो कहना होगा कि वह पुण्यका भिखारी है, क्योकि यह सब सुख -सामग्री पुण्यके उदयसे मिलती है । कानजीस्वामी भी यह सब कुछ चाहते हैं अत वे भी पुण्यके भिखारी हैं। जो पुण्यका भिखारी हो वह पुण्यके तिरस्कारका अधिकारी नही । पुण्यका भिखारी होते हुए भी जो कोई पुण्यके तिरस्कारका ऐसा गन्दा वचन मुँह मे निकलता है वह उसके सही होश - हवास अथवा पूर्णत सावधानीकी हालत मे मुखसे निकला हुआ नही कहा जा सकता और इसीलिए उसे कोई खास महत्व नही दिया जा सकता । सासारिक सुख-सुविधाओको जन्म देनेवाली सातावेदनीय आदि पुण्य - प्रकृतियाँ चार अघातिया कर्मोकी शुभ प्रकृतियाँ हैं । अघातिया कर्मोंका आत्मासे पूर्णत पृथक्करण चौदहवें गुणस्थानमे जाकर होता है, उससे पहले नही बनता । कानजी स्वामी अपनेको चौथे गुणस्थानमे स्थित अविरत - सम्यग्दृष्टि बतलाते हैं, तब उनका पुण्यको विष्ठाके समान बतलाकर उसके त्यागकी प्रेरणा करना और स्वयं पुण्य के साथ चिपटे रहना कोरी विडम्बना तथा अनधिकार चेष्टा के सिवाय और कुछ नही है । यदि पुण्यको सर्वथा हेय माना जाय तो अनादि-कर्मबद्ध आत्माको कभी अपने शुद्ध-स्वरूपकी उपलब्धि अथवा मुक्तिको प्राप्ति नही हो सकती । पुण्य भूमिमे खडे होकर ही शुद्धताकी ओर बढा जा सकता है । जैन तीर्थंकरोने निश्चय और व्यवहारके भेदसे मोक्षमार्गके दो भेद किये हैं, निश्चयको साध्यकोटिमे और व्यवहारको साधनकोटिमे रखा है जैसे कि कानजीस्वामीके श्रद्धा-भाजन अमृतचन्द्राचार्यके निम्न वाक्य से प्रकट है
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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