SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 661
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाजका वातावरण दूषित ६५३ नही आती और समाज-का वातावरण उत्तरोत्तर दूपित होता चला जाता है। उक्त वक्तव्यमे यह भी कहा गया है कि "पूज्य कानजीस्वामीके प्रवचनोसे समस्त दिगम्बर जैनसमाजको महान् अवर्णनीय लाभ हुआ है।" यदि यह ठीक है तो फिर लाभान्वित होनेवालोकी तरफसे विरोध क्यो ? और इन्दौरमे ही "कतिपय पुरुष" उनके विरोधी क्यो ? जो उन्ही गाठोमेसे होगे जिनके प्रतिनिधि बनकर एक-एक सज्जनने वक्तव्यपर अपने हस्ताक्षर किये हैं। विरोध तो 'महान् अवर्णनीय लाभ' की मान्यताका सूचक नही, प्रत्युत इसके किसी भारी अलाभके होनेका द्योतक है। उक्त वाक्यके द्वारा अपनी मान्यताको विना किसी युक्तिके दूसरोपर लादनेका प्रयत्न भी किया गया जान पडता है। एक बार कानजी स्वामीने किसी आवेशादिके वश होकर ऐसा कह दिया था कि- 'पुण्य' तो विष्ठाके समान है।' उनके इस कथनसे समाजमें बहुत बडा क्षोभ उत्पन्न हुआ था, जो अभी तक चला जाता है। और वह उनके प्रति एक प्रकारसे बहुतोकी अश्रद्धाका कारण बना है, क्योकि उसके द्वारा अन्य कार्यो के प्रति घृणा ही उत्पन्न नहीं की गई, बल्कि एक प्रकारसे पुण्यका भोग करने वालोको विष्ठा-भोजी भी बतला दिया है। इसमे सन्देह नहीं कि उक्त घृणित-वाक्य सभ्यता और शिष्टतासे गिरा हुआ है और एक सत्पुरुषके मुंहसे उसका निकलना शोभा नही देता। श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसार में "पुण्णफला अरहंता" वाक्यके द्वारा अरहन्तोको जिस पुण्यका फल बतलाते हैं और श्लोकवातिकमे श्री विद्यानन्दाचार्यने “सर्वातिशायि पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतित्वकृत्" वाक्यके द्वारा जिस पुण्यसे तीन लोकका आधिपत्य (परमेश्वरत्व) प्राप्त होता है उसे 'सर्वोत्कृष्ट'
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy