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________________ ६४४ युगवीर-निवन्धावली गया, गृहस्थ विद्वानो-द्वारा शास्त्र-सभाएँ होने लगी, भट्टारकोकी शान्त्र-सभाएँ फीकी पड़ गई, स्वतन्त्र पाठशालाओ-द्वारा बच्चोकी धार्मिक शिक्षाका प्रारम्भ हुआ और जैन-मन्दिरोमें सर्वत्र शास्त्रोके सग्रह, स्वाध्याय तथा नित्य-वाचनकी परिपाटी चली। और इन सबके फलस्वरूप श्रावकजन धर्मकर्ममे पहलेसे अधिक सावधान हो गये-~-वे नित्य स्वाध्याय, देवदर्शन, शास्त्रश्रवण, शील-सयमके पालन तथा जप-तपके अनुष्ठानमे पूरी दिलचस्पी लेने लगे और शास्त्रोको लिखा-लिखाकर मन्दिरोमे विराजमान किया जाने लगा। इन सब बातोमे स्त्रियोने पुरुपोका पूरा साथ दिया और अधिक तत्परतासे काम किया, जिससे तेरह पथको उत्तरोत्तर सफलताकी प्राप्ति हुई और वह मूल जैन आम्नायका सरक्षक बना। यह सब देखकर धर्मासनसे च्युत हुए भट्टारक लोग बहुत कुढते थे और उन तेरह पन्थमे रात-दिन रत रहनेवाले श्रावको पर दूषित मनोवृत्तिको लिये हुए वचन-बाणोका प्रहार करते थे-~~उन्हे निष्ठुर कहते थे, काठिया (धर्मकी हानि करनेवाले) बतलाते थे और 'गुरु-विवेकसे शून्य' घोषित करते थे। साथ ही, उनके जप-तप और शील-सयमादिरूप धर्माचरणको निष्फल ठहराते थे और यहाँ तक कहनेकी धृष्टता करते थे कि तेरह पथी वनिक पुत्रकी उत्पत्ति पर देवतागण रौरव नरकका अथवा घोर दुखका अनुभव करते हैं, जबकि पुत्रकी उत्पत्ति पर सारा जगत हर्ष मनाता हे । इसके सिवाय, वे पतितात्मा उन धर्मप्राण एवं शील-सयमादिसे विभूषित स्त्रियोको, जो धर्मके विषयमे अपने पुरुषोका पूरा अनुसरण करती थी और नित्य मन्दिरजीमे जाती थी, किन्तु भट्टारक गुरुके मुखसे शास्त्र नहीं सुनती थी, 'वेश्या' बतलाते थे। उन पर व्यग्य कसते थे कि वे प्रति दिन जिनालय
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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