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________________ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश आजाय और तात्कालिक दृष्टिसे उन्हें अच्छा या बुरा भी बतला दिया जाय, परन्तु इससे वे कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त नही बन जाते--ऐसे कोई नियम नही हो जाते कि जिनके अनुसार चलना सर्वदेशो और सर्व समयोके मनुष्योके लिये बरावर जरूरी और हितकारी हो। हाँ, इतना जरूर है कि आगमकी दृष्टिमे सिर्फ वे ही लौकिक विधियाँ अच्छी और प्रामाणिक समझी जा सकती है जो जैन सिद्धान्तोके विरुद्ध न हो, अथवा जिनके कारण जैनियोकी श्रद्धा ( सम्यक्त्व ) मे बाधा न पडती हो और न उनके व्रतोमे ही कोई दूपण लगता हो । इस दृष्टिको सुरक्षित रखते हुए, जैनी लोग प्राय सभी लौकिक विधियोको खुशीसे स्वीकार कर सकते हैं और अपने वर्तमान रीति-रिवाजोमे देशकालानुसार यथेष्ट परिवर्तन कर सकते हैं। उनके लिये इसमे कोई बाधक नही है । अस्तु । इस सम्पूर्ण विवेचनसे प्राचीन और अर्वाचीन कालके विवाहविधानोकी विभिन्नता, उनका देश-कालानुसार परिवर्तन और लौकिक धर्मोंका रहस्य, इन सब बातोका बहुत कुछ अनुभव प्राप्त हो सकता है, और साथ ही यह भले प्रकार समझमे आ सकता है कि वर्तमान रीति-रिवाज कोई सर्वज्ञ-भाषित ऐसे अटल सिद्धान्त नही है कि जिनका परिवर्तन न हो सके अथवा जिनमे कुछ फेरफार करनेसे धर्मके डूब जानेका कोई भय हो। हम, अपने सिद्धान्तोका विरोध न करते हुए, देश-काल और जातिकी आवश्यकताओके अनुसार उन्हे हर वक्त बदल सकते हैं, वे सब हमारे ही कायम किये हुए नियम हैं और इसलिए हमे उनके बदलनेका १. सर्व एष हि जैनाना प्रमाण लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यन न व्रतदूषणम् ॥-सोमदेव ।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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