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________________ चिन्ताका विषय अनुवाद ६०९ भागके अन्तमे जोड दिया है और इसे प्रकाशक महाशयकी वडी कृपा समझनी चाहिये। इस ग्रथमे ग्रथकतनि अपने परिचयका जो एक पद्य दिया है वह इस प्रकार है - विख्यातोऽस्ति समस्तलोकवलये श्रीमूलसंघोऽनघः तबाभूद्विनयेन्दुरद्भुतमतिः श्रीसागरेन्दोः सुत । तच्छिष्योऽजनि मोह - भूभृदशनिस्त्रैलोक्यकीर्तिमुनिः तच्छिष्यो गुणभूपण समभवत्स्याद्वाद(दि) चूड़ामणिः ॥ इस पद्यमे बहुत ही स्पष्ट शब्दो-द्वारा यह बतलाया गया है कि-'सम्पूर्ण जगतमे मूलसघ नामका एक निर्दोप सघ प्रसिद्ध है, उसमे श्री 'सागरचन्द' के शिष्य 'विनयचन्द्र' (मुनि) हुए, जो अद्भुत् वुद्धिके धारक थे, विनयचन्द्रके शिष्य 'त्रैलोक्यकीर्ति' मुनि हुए जो मोहरूपी पर्वतके लिए वज्रके समान थे और त्रैलोक्यकीर्ति मुनिके शिष्य गुणभूषण हुए जो स्यावाद(दि) चूडामणि हैं अर्थात् स्यावाद विद्याके जानेवालोमे इस समय प्रधान है ।' अब इसी पद्यके ५० नन्दलालजी कृत अनुवादको लीजिये । आप लिखते हैं - “समस्त ससारमै मूलसघ अत्यन्त प्रसिद्ध है और महान् पूरुपोसे मान्य है। उस मूलसघमे परम तेजस्वी समस्त विद्याके पारगामी श्री सागरचन्द नामक विद्वान् हुए। श्रीसागरचन्द्रके १ इस पद्य पर २५९ और २६० ऐसे दो नम्बर डाले गये हैं और इससे ऐसा सूचित होता है कि शायद अनुवादकजीने इसे एक पद्य न समझकर पद्य-द्वितय समझा है, परन्तु ऐसा नहीं है। यह शार्दूलविक्रीडित छन्दमें एक ही पद्य है। इसी तरह पर और भी पोको एकएककी जगह दो दो पद्योंमें वॉट दिया है, और इससे ग्रन्थकी पद्य-सख्या विगड गई-उल्लेखके अनुसार नहीं रही।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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