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________________ ३८ प्रवचनसारका नया सस्करण ५९३ पूर्वार्ध भी कहा जा सकता है और वह उस समयसे भी मिलताजुलता है जो साम्प्रदायिक पट्टावलियोके अनुसार प्रो० साहबने १० वी शताब्दीका प्रारम्भ बतलाया है। ___यहां पर इतना और भी प्रकट कर देना जरूरी मालूम होता है कि जयधवलाके अन्तमे, जिसका समाप्तिकाल शक स० ७५९ ( ई० सन् ८३७ ) है, प्राय ३० कारिकाएँ, दूसरी कारिकाओके साथ, 'उक्त च' रूपसे ऐसी उद्धृत मिलती हैं जो तत्त्वार्थसारमे भी पाई जाती हैं और इससे कोई अमृतचन्द्रका समय ईसाकी ८ वी शताब्दी भी बतला सकता है। परन्तु ऐसा बतलाना ठीक नहीं है, क्योकि ये कारिकाएँ राजवार्तिकमे भी उद्धृत हैं तथा तत्त्वार्थाधिगम-भाष्यके अन्तमे भी पाई जाती है और किसी पृथक् ही प्रबन्धकी जान पडती है जो जयधवलामे उद्धृत किया गया है और जो अति प्राचीन मालूम होता है। उसपर किसी समय एक स्वतत्र लेखके द्वारा जुदा ही प्रकाश डालनेका विचार है। अस्तु, धवला और जयधवला-जैसी विशालकायटीकाओमे अमृतचन्द्रके पुरुपार्थसिद्धयुपाय, समयसारकलशा तथा तत्त्वार्थसार-जैसे ग्रथोका दूसरा कोई भी पद्य देखनेमे नही आता, और इससे ये टीका-ग्रन्थ अमृतचन्द्राचार्यसे पहलेके बने हुए जान पड़ते हैं, अन्यथा इनमे अमृतचन्द्राचार्यके किसी-न-किसी वाक्यके उद्धृत होनेकी सभावना जरूर थी। हाँ, प्रो० साहबकी इस विशाल-प्रस्तावनाके सम्बधमे एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह है कि इसमे प्रवचनसारकी मूलगाथाओका यो तो कितना ही विचार किया गया है, परन्तु इस प्रकारका कोई विचार प्रस्तुत नही किया गया जिससे यह मालूम होता कि प्रवचनसारकी सब गाथाएँ कुन्दकुन्दद्वारा रचित हैं अथवा कुछ ऐसी भी गाथाएँ उसमे शामिल हैं जो
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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