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________________ युगवीर-निवन्धावली आचरण करें, परन्तु मुनि न करें। ( यदि ऐसा विशेष अथवा नियम किया जायगा तो) मगलकी तरह सरागसयमके भी त्याग का प्रसंग आएगा-पुण्यवन्धका कारण होनेसे वह भी मुनियोंके नही बन सकेगा। यदि विपयका स्पष्टीकरण करते हुए इस रूपमे ही अनुवाद रख दिया जाता तो, मैं समझता हूँ, पाठकोको मूलका आशय समझनेमे जरा भी दिक्कत न होती। इसी तरह दूसरे पैरेग्राफका अनुवाद भी आपत्तिके योग्य है। ऊपर यह बतलाया जा चुका है कि 'ण च सजमप्पसगभावेण' यह पाठ प्रसंगको देखते हुए कुछ अशुद्ध एव अधूरासा जान पडता है और वह ठीक ही है, क्योकि "णिव्वुइगमणाभावप्पसगादो' यह वाक्य हेतुरूपमे प्रयुक्त हुआ है इसलिये अपने पूर्वमे एक पूरे वाक्यके सद्भावकी अपेक्षा रखता है जो उक्त पाठसे पूरी नही होती । सम्भवत वह वाक्य 'ण च सरागसजमस्स परिच्चागो जुत्तो' ऐसा कुछ होना चाहिये और उसके अनन्तर 'असजमप्पसगभावेण' यह वाक्यखड उक्त हेतुवाक्यके पूर्वमे रहना चाहिये । इससे मूलका यह आशय स्पष्ट हो जायगा कि-'सरागसयमका परित्याग ठीक नहीं है, क्योकि इस तरह असयमका प्रसग उपस्थित होनेसे निर्वाणगमनके अभावका ही प्रसग आएगा।' इस अनुवादमे 'और वन्धसे मोक्ष असख्येय गुणा ( अधिक उत्तम ) है' यह अश विशेष आपत्तिके योग्य है। इसमे 'तेण" का अर्थ 'और' और 'असख्येयगुणा' का भाव 'अधिक उत्तम' गलत दिया गया है । मूलका आशय इस प्रकार जान पडता है___ 'इससे उसमे बन्धकी अपेक्षा मोक्ष असख्येयगुणा (असख्यातगुणी कर्मनिर्जराको लिये हुए ) है।'
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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