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________________ सुगवीर निवनगायरी जिनेन्द्रने तीम वर्ष तक बिहार पिया है, और दूवरेमें यह प्रतिपादित किया है कि तीन गुप्नियो, पाँच समितियो जोर पंचततोके रूपमें जो केन्द्र प्रसारमा चारित (धर्म) है वह वोरजिनेन्द्रके द्वारा निर्दिष्ट आ है। उपसंहार हमारे नित्यक 'चत्तारि मगन' नामके प्रानीनतम पाठमें 'फेवलि-पणतो धम्मो मंगल, 'केलिपप्णत्तो धम्मोलोगत्तमो, और 'केवलिपणतं धम्म मरणं पयज्जामि' इन वाक्योके द्वारा फवनि-जिन-प्रणीत धर्मको मंगलमृत और लोकोत्तम मानते हुए उनके शरणम प्राप्त होने की नित्य भावना की जाती है । लव प्रश्न यह पैदा होता है कि धौन्दकुन्द और स्वामो समन्तभद्रादि महान् आनार्योंक प्राचीन ग्रन्योमें श्रावको तथा मुनियोके जिस धर्मको देशना-प्रपणा की गई है और जिसका लप्ट आभास पर उद्धृत वाक्योसे होता है वह केवलि-जिन-प्रणीत है या कि नहीं ? यदि है तो वह धर्म जिनशासनका अग हमा, उसे जिनशासनले बाह्य कैसे किया जा सकता है और कैसे कानजोस्वामीके ऐसे कधनको संगत ठहराया जा सकता है जो सम्यग्दृप्टिके पूजा-दानव्रतादिके शुभभावोको जैनधर्म ही नही बतलाता, प्रत्युत इसके, जिनशासनमे उन्हें धर्मस्पसे प्रतिपादनका ही निषेध करता है और फलतः उन प्राचीन आचार्योपर अन्यथा कथनका दोषारोपण भी करता है जो उसे जिनोपदिष्ट धर्म वतला रहे हैं ? और यदि कानजीस्वामीको दृष्टिमे वह सब धर्म केवलिजिन-प्रणीत नहीं है, तब वह न तो मगलभूत है न लोकोत्तम है, न हमे उसकी शरणमे ही जाना चाहिए या उसे अपनाना चाहिए, ऐसी कानजीस्वामीकी यदि धारणा है और इसीसे वे उसका निपेध करके उसे
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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